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कविता

पानी और हमारा झूठ

यशस्विनी


पानी का रंग सफेद, हरा, नीला, मटमैला
दिखता है हमें;
रंग उसे प्रकृति ने ऐसा दिया कि
जिस के साथ उसी का रंग
रंग तो हम बदलते हैं उसका;
अपनी तरह से
अनंत आसमान और अछोर सागर के साथ नीला
मिटटी के साथ मटमैला
पेड़ पौधों के साथ हरा।
उसका अपना रंग पसंद नही आया,
और हमने उसे बदला
भर दिया बोतलों में
उसे मिनरल वाटरल बना के
न रहा आँखों का पानी
दे दिए कई रंग उसे भी
जैसे खुद के बदले रंग ढंग से
जीते हैं कचरे के कई रंगों को अपने भीतर
वही रंग हमें अपना लगने लगता है
वही रंग हो जाता है हमारा स्‍थायी
हमारे झूठ के साथ
और भी गाढ़ा होता हुआ।

 


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